विज्ञान एवं आध्यात्म

  विज्ञान एवं आध्यात्म

संसार वास्तव में ईश्वर का आभास हैं और यह आभास इस कारण उत्पन्न होता हैं कि हमने अज्ञानता वश संसार को सत्य समझ लिया हैं जो क्षण भंगुर है और प्रत्येक क्षण परिवर्तनीय हैं। यह कदापि सत्य नहीं हो सकता। सत्य होने की एक मात्र शर्त यह हैं कि मनुष्य माया में लिप्त न हो। यह चराचर जगत रूपी नश्वर संसार ईश्वर का मायावी रूप हैं और तमाशा यह हैं कि ईश्वर उस माया से ढक नहीं पाता, वरन हमें ही अथवा हमारे विचारों को ही माया में लिप्त कर देता हैं। हम संसार में एश्वर्य प्राप्त करना चाहते हैं, जो केवल कल्पना हैं, वास्तविकता नहीं। यह हमारे अज्ञान का खेत हैं। हम आत्मा ही हैं अर्थात अमर और अजन्मा।
आदमी बड़ा अजीब हैं, जिस घर में रहता हैं उसकी चिन्ता कम करता हैं और मन्दिर , पूजा स्थल, आस्था केन्द्र की चिन्ता अधिक करता हैं। घर किसी एक का नहीं हो सकता। बनाने वाला कभी अकेले अपने लिए नहीं बनाता। वह आने वाली पीढ़ियों , रिश्तेदारों व अतिथियों को दृष्टिगत रखते हुए ही घर का निर्माण करवाता हैं। घर में जो भी रहता हैं चाहे मालिक हो या नौकर , बच्चे हो या किरायेदार अथवा मेहमान , कायदे से घर सभी का होता हैं किन्तु कोई उसे अपना मानता ही नहीं हैं। जब तक सभी लोग घर से आध्यात्मीक रूप से नहीं जुड़गें , तब तक घर , घर नहीं बनेगा। प्रेम मकान को घर बनाता हैं , प्रेम के अभाव में घर भी मकान बन जाता हैं। घर में प्रेम की तंरगे बहती हैं, मकान में यह सम्भव नही हैं। जब आप ध्यानमग्नता में परमात्मा की उपस्थिति में अपने को गर्वित अनुभव करते हो जब घर के आभामंडल में विस्तार होगा, घर मन्दिर बन जायेगा।
घर में काम के बिना सब कुछ अधूरा हैं। घर व शयन कक्ष का वातावरण काम में सहायक हो , तभी घर आध्यात्मीक रूप से समृद्ध होगा। जब तक मनुष्य ’ काम ’ की दृष्टि से सन्तुष्ट नहीं होगा, वह जीवन के किसी अन्य क्षेत्र में कामयाब नहीं हो सकता। ऐसा मनुष्य उदास - उदास सा रहेगा , निराशावादी होगा और चिड़चिड़ा हो जायेगा। ऐसा व्यक्ति पागल भी हो सकता हैं , आत्महत्या भी कर सकता हैं। उसे दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं लगता। उसे अपना जीवन निरर्थक व निरस लगेगा। मनुष्य को अपनी कामेच्छाई पर नियंत्रण रखना चाहिए। यदि कहीं कोई कमी हैं तो उसे विज्ञान की सहायता लेनी चाहिए। ज्योतिष विज्ञान , वास्तु विज्ञान , अंकशास्त्र , हस्तरेखा , रेकी (स्पर्श चिकित्सा) , एंक्यूपक्चर या अन्य वेकल्पिक चिकित्सा विज्ञान की सहायता से अपनी इच्छापूर्ति कर सकता हैं।
ज्योतिष विज्ञान और अंक विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं। कर्मकांड, मंत्रोचार एंव गणना द्वारा मनुष्य को उसकी दुःख तकलीफों से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया जाता हैं। इसकी सहायता से मनुष्य आने वाले बुरे समय के प्रति सचेत व सावधान हो सकता हैं। अनुष्ठान , मंत्रोचार , रत्न धारण आदि के माध्यम से वह अपना कल सुधार सकता हैं।
इसी प्रकार वास्तु शास़्त्र वस्तुतः वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं जिसका मनौवैज्ञानिक प्रभाव अधिक होता हैं। वास्तु शास्त्र वस्तुतः कला भी हैं और विज्ञान भी। चूंकि सभी कलाओं और विज्ञानों का जन्म शास्त्रों से ही हुआ हैं इसलिए वास्तुविद्या को ’शास्त्र’ कहा गया हैं , किन्तु आज यह ’शास्त्र’ से अधिक विज्ञान और शिल्प की दृष्टि से कला बन चुका हैं। भवन निर्माण, साज-सज्जा व रंग रोगन में यह विज्ञान अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा हैं।
हम जानते हैं कि एक शिल्पकार (आर्किटेक्ट) सुन्दर भवन बना सकता हैं किन्तु सुख शान्ति की गारन्टी केवल ’वास्तुविद्’ ही दे सकता है।
वास्तु शास्त्र वस्तुतः काफी पुराना हैं। वास्तु शास्त्रीय सिद्धान्त किसी न किसी रूप में हर युग और हर देश में प्रभावी रहा हैं। किसी भी वस्तु के निर्माण से पूर्व कुछ मूलभुत सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना होता हैं। इस दृष्टि से वास्तु विद्या उतनी ही पुरानी हैं जितनी मानव सभ्यता। लिखित साहित्य की दृष्टि से भारत में सर्वप्रथम ऋगवेद में वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता हैं, तत्पश्चातत् ब्राह्मण ग्रन्थों , महाकाव्यों , शुक्राचार्य , बृहस्पति , विश्वकर्मा द्वारा रचित ग्रन्थों तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र व पुराणों में भी किसी न किसी सन्दर्भ में वास्तु विज्ञान
( कला ) का विवरण मिलता हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में महाराजा ’भोजराज’ द्वारा वास्तु शास्त्र का प्रामाणिक ग्रन्थ ’’ समरागण सूत्रधार ’’ लिखा गया।
वस्तुतः वास्तु शास्त्र में पंच तत्वों के सन्तुलन पर ध्यान दिया जाता हैं। सभी जानते हैं - पृथ्वी , वायु , आकाश , जल और अग्नि नामक पंचभूतों से मानव शरीर बना हुआ हैं, वैसे ही मनुष्य जहाँ वास करता हैं उसे ’वस्तु’ यानी वास्तु कहा जाता हैं तथा उससे सम्बन्धित विज्ञान की वास्तु विज्ञान (शास्त्र) कहा जाता हैं। वास्तु शास्त्र में इन्ही पंच तत्वों का संतुलन कर मनुष्य को लाभान्वित किया जाता हैं। पर्यावरण और वातावरण का अध्ययन भी वास्तु शास्त्र के अन्तर्गत ही आता हैं। वास्तु शास्त्रीय सिद्धान्तों के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से यह निश्चित नहीं किया जा सकता हैं कि किसी भवन का निर्माण सही हुआ या नहीं।
दैनिक जीवन में व्यक्ति कुछ शारिरीक क्रियाएँ करता हैं। वास्तुशास्त्र हमे यह बताता हैं कि इन क्रियाओं को किस प्रकार सन्तुलित किया जाए कि प्राकृतिक ऊर्जा के साथ तालमेल बना रहे। हमारे यहाँ आजकल बहुमंजिले भवन निर्माण का दौर चल रहा हैं। भूमि की कमी देखते हुए अब तो मल्टी स्टोरी (बहुमंजिले ) इमारतों का जमाना आ गया हैं। जनसंख्या वृद्धि , मंहगाई व भूमि की कमी को देखते हुए अब वास्तुविज्ञों का उत्तरदायित्व अधिक चुनौती पूर्ण होता जा रहा हैं।
वास्तु प्राकृतिक नियमानुसार निर्माण का वैदिक विधान हैं ,जिसके कारण परिवार में सुख-शान्ति और समृद्धि के साथ परिवार के सदस्यों में मधुर सम्बन्ध रहते हैं। इसके लाभ स्वरूप मनुष्य की सृजनशीलता एंव सहिष्णुता में वृद्धि होती हैं। इतना ही नहीं वास्तु सममत निर्मित भवनों में रहने वाले और काम करने वाले निरोगी रहते हैं जिसके कारण अवकाश कम लेते हैं तथा उनका अपने स्वास्थ्य पर अनावश्यक खर्च भी कम होता हैं क्योंकि बीमार कम होते हैं।
कुछ भी हो मनुष्य जब तक मनुष्य अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हैं , पर्यावरण के प्रति प्र्रतिबद्ध हैं और अपने घर में तनाव रहित जीवन बिताते हुए सुख-शान्ति व समृद्धि की लालसा रखता हैं, तब तक वास्तु शास्त्र का महत्व बढ़ता रहेगा अर्थात इक्कीसवी सदी में वास्तु की उपयोगिता सर्वाधिक रहेगी।
आदमी का जीवन कैसे बदले ? मनुष्य को परमानन्द एवं परम शान्ति कैसे प्राप्त हो ? अध्यात्म और विज्ञान की सहायता से यह संभव किया जा सकता हैं। विज्ञान (ज्योतिष , वास्तु , हस्तरेखा व अंकशास्त्र) और आध्यात्म का समन्वय मनुष्य को चिन्ताओं , परेशानियों एंव व्याधियों से मुक्ति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता हैं। 
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